फ़ॉलोअर

रविवार, 4 दिसंबर 2011

हाइकु-दिवस पर कृष्ण कुमार यादव के प्रेम-हाइकु

हाइकु हिंदी-साहित्य में तेजी से अपने पंख फ़ैलाने लगा है. कम शब्दों (5-7-5)में मारक बात. भारत में प्रो० सत्यभूषण वर्मा का नाम हाइकु के अग्रज के रूप में लिया जाता है. यही कारण है कि उनका जन्मदिन हाइकु-दिवस के रूप में मनाया जाता है. आज 4 दिसम्बर को उनका जन्म-दिवस है, अत: आज ही हाइकु दिवस भी है। इस बार हाइकुकार इसे पूरे सप्ताह तक (4 दिसम्बर - 11 दिसम्बर 2011 तक) मना रहे हैं. इस अवसर पर कृष्ण कुमार यादव के कुछ प्रेम-हाइकु का लुत्फ़ उठाएं-

पावन शब्द
अवर्णनीय प्रेम
सदा रहेंगे।

सहेजते हैं
सपने नाजुक से
टूट न जाएं।

जीवंत रहे
राधा-कृष्ण का प्रेम
अलौकिक सा।

फिल्मी संस्कृति
पसरी हर ओर
कामुक दृश्य

अपसंस्कृति
टूटती वर्जनाएँ
विद्रूप दृश्य

ये स्वछंदता
एक सीमा तक ही
लगती भली





*********************************************************************************


कृष्ण कुमार यादव : 10 अगस्त, 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ. प्र.) में जन्म. आरंभिक शिक्षा जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर-आजमगढ़ में एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1999 में राजनीति शास्त्र में परास्नातक. वर्ष 2001 में भारत की प्रतिष्ठित ‘सिविल सेवा’ में चयन। सम्प्रति ‘भारतीय डाक सेवा’ के अधिकारी। सूरत, लखनऊ और कानपुर में नियुक्ति के पश्चात फिलहाल अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में निदेशक पद पर आसीन।


प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लाॅगिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, हाइकू, व्यंग्य एवं बाल कविता इत्यादि विधाओं में लेखन. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं - समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, वर्तमान साहित्य, आजकल, इन्द्रप्रस्थ भारतीय, उत्तर प्रदेश, मधुमती, हरिगंधा, हिमप्रस्थ, गिरिराज, पंजाब सौरभ, अकार, अक्षर पर्व, अक्षर शिल्पी, युग तेवर, शेष, अक्सर, अलाव, इरावती, उन्नयन, भारत-एशियाई साहित्य, दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, स्वतंत्र भारत, अजीत समाचार, लोकायत, शुक्रवार, इण्डिया न्यूज, द सण्डे इण्डियन, छपते-छपते, प्रगतिशील आकल्प, युगीन काव्या, आधारशिला, साहिती सारिका, परती पलार, वीणा, पांडुलिपि, समय के साखी, नये पाठक, सुखनवर, प्रगति वार्ता, प्रतिश्रुति, झंकृति, तटस्थ, मसिकागद, शुभ तारिका, सनद, चक्रवाक, कथाचक्र, नव निकष, हरसिंगार, अभिनव कदम, सबके दावेदार, शिवम्, लोक गंगा, आकंठ, प्रेरणा, सरस्वती सुमन, संयोग साहित्य, शब्द, योजना, डाक पत्रिका, भारतीय रेल, अभिनव, प्रयास, अभिनव प्रसंगवश, अभिनव प्रत्यक्ष, समर लोक, शोध दिशा, अपरिहार्य, संवदिया, वर्तिका, कौशिकी, अनंतिम, सार्थक, कश्फ, उदंती, लघुकथा अभिव्यक्ति, गोलकोंडा दर्पण, संकल्य, प्रसंगम, पुष्पक, दक्षिण भारत, केरल ज्योति, द्वीप लहरी, युद्धरत आम आदमी, बयान, हाशिये की आवाज, अम्बेडकर इन इण्डिया, दलित साहित्य वार्षिकी, आदिवासी सत्ता, आश्वस्त, नारी अस्मिता, बाल वाटिका, बाल प्रहरी, बाल साहित्य समीक्षा इत्यादि में रचनाओं का प्रकशन।


इंटरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं-अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, लेखनी, कृत्या, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, हमारी वाणी, लिटरेचर इंडिया, कलायन इत्यादि इत्यादि सहित ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर व पोर्टब्लेयर, Red FM कानपुर और दूरदर्शन पर कविताओं, लेख, वार्ता और साक्षात्कार का प्रसारण।


अब तक कुल 5 कृतियाँ प्रकाशित- 'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह,2005) 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श' (निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years' (2006) एवं 'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा' . व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा' (सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008) पत्रिकाओं द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित. सिद्धांत: Doctrine (कानपुर) व संचार बुलेटिन (लखनऊ) अंतराष्ट्रीय शोध जर्नल में संरक्षक व परामर्श सहयोग। ‘साहित्य सम्पर्क’ (कानपुर) पत्रिका में सम्पादन सहयोग। ‘सरस्वती सुमन‘ (देहरादून) पत्रिका के लघु-कथा विशेषांक (जुलाई-सितम्बर, 2011) का संपादन। विभिन्न स्मारिकाओं का संपादन।


विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु 50 से ज्यादा सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त। अभिरूचियों में रचनात्मक लेखन व अध्ययन, चिंतन, ब्लाॅगिंग, फिलेटली, पर्यटन इत्यादि शामिल।


बकौल पद्मभूषण गोपाल दास 'नीरज' - ‘श्री कृष्ण कुमार यादव यद्यपि एक उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु फिर भी उनके भीतर जो एक सहज कवि है वह उन्हें एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करने के लिए निरन्तर बेचैन रहता है। उनमें बुद्धि और हृदय का एक अपूर्व सन्तुलन है। वो व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ कवि हैं जो वर्तमान परिवेश की विद्रूपताओं, विसंगतियों, षडयन्त्रों और पाखण्डों का बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटन करते हैं।’

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

तुम और चाँद : कृष्ण कुमार यादव

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती कृष्ण कुमार यादव जी की एक कविता 'तुम और चाँद'.आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

रात का पहर
जब मैं झील किनारे
बैठा होता हूँ
चाँद झील में उतरकर
नहा रहा होता है
कुछ देर बाद
चाँद के साथ
एक और चेहरा
मिल जाता है
वह शायद तुम्हारा है
पता नहीं क्यों
बार-बार होता है ऐसा
मैं नहीं समझ पाता
सामने तुम नहा रही हो
या चाँद
आखिरकार, झील में
एक कंकड़ फेंककर
खामोशी से मैं
वहाँ से चला आता हूँ।
**************************************************************************
कृष्ण कुमार यादव :
10 अगस्त, 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ.प्र.) के एक प्रतिष्ठित परिवार में श्री राम शिव मूर्ति यादव एवं श्रीमती बिमला यादव के प्रथम सुपुत्र-रूप में जन्म। आरंभिक शिक्षा बाल विद्या मंदिर, तहबरपुर (आजमगढ़), जवाहर नवोदय विद्यालय-जीयनपुर आजमगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद वि.वि. से 1999 में राजनीति शास्त्र में एम.ए. वर्ष 2001 में भारत की प्रतिष्ठित ‘सिविल सेवा’ में चयन। सम्प्रति ‘भारतीय डाक सेवा’ के अधिकारी। सूरत, लखनऊ और कानपुर में नियुक्ति के पश्चात फिलहाल अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में निदेशक पद पर आसीन। 28 नवम्बर, 2004 को आकांक्षा यादव से विवाह। दो पुत्रियाँ: अक्षिता (जन्म- 25 मार्च, 2007) और तान्या (जन्म-27 अक्तूबर 2010)।

प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी चर्चित नाम। अब तक कुल 5 कृतियाँ प्रकाशित-'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005)'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श' (निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years'(2006) एवं 'श्क्रांति-यज्ञ: 1857-1947 की गाथा' (2007)। देश-विदेश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं- समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, वर्तमान साहित्य, आजकल, इन्द्रप्रस्थ भारतीय, उत्तर प्रदेश, मधुमती, हरिगंधा, हिमप्रस्थ, गिरिराज, पंजाब सौरभ, अकार, अक्षर पर्व, अक्षर शिल्पी, हिन्दी चेतना (कनाडा), युग तेवर, शेष, अक्सर, अलाव, इरावती, उन्नयन, भारत-एशियाई साहित्य, दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, स्वतंत्र भारत, लोकायत, शुक्रवार, इण्डिया न्यूज, द सण्डे इण्डियन, छपते-छपते, प्रगतिशील आकल्प, युगीन काव्या, आधारशिला, वीणा, दलित साहित्य वार्षिकी, बाल वाटिका, गोलकोेण्डा दर्पण, संकल्य, प्रसंगम, पुष्पक, दक्षिण भारत, केरल ज्योति, द्वीप लहरी, इत्यादि में रचनाएँ प्रकाशित।

इंटरनेट पर ’कविता कोश’ में काव्य-रचनाएँ संकलित। विभिन्न वेब पत्रिकाओं, ई पत्रिकाओं, ब्लॉग- अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, लेखनी, कृत्या, उदंती.काम, काव्यांजलि, रचनाकार, विश्वगाथा, परिकल्पना ब्लॉगोत्सव, हिन्दी हाइकु, हिन्दी नेस्ट, हिंदी मीडिया, हिंदी साहित्य मंच, हमारी वाणी, स्वतंत्र आवाज डाॅट काम, स्वर्गविभा, कलायन, सार्थक सृजन, आखर कलश, शब्दकार, अपनी माटी, वांग्मय पत्रिका, ई-हिन्दी साहित्य, सुनहरी कलम से, नारायण कुञ्ज, कवि मंच, इत्यादि पर रचनाएँ प्रकाशित। व्यक्तिगत रूप से शब्द सृजन की ओर डाकिया डाक लाया और युगल रूप में ‘बाल-दुनिया’ , ‘सप्तरंगी प्रेम’ व ‘उत्सव के रंग’ ब्लॉग के माध्यम से सक्रियता।

आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर व पोर्टब्लेयर और दूरदर्शन से कविताएँ, वार्ता, साक्षात्कार का प्रसारण। पचास से अधिक प्रतिष्ठित पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ संकलित। ‘सरस्वती सुमन‘ (देहरादून) पत्रिका के लघु-कथा विशेषांक (जुलाई-सितम्बर, 2011) का संपादन। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’ (सितम्बर 2007) एवं इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू‘ (मार्च 2008) पत्रिकाओं द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित। व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित। भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘’महात्मा ज्योतिबा फुले फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान‘‘ व ‘’डाॅ0 अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान‘‘, साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा ”हिंदी भाषा भूषण”, भारतीय बाल कल्याण संस्थान द्वारा ‘‘प्यारे मोहन स्मृति सम्मान‘‘, ग्वालियर साहित्य एवं कला परिषद द्वारा ”काव्य शिरोमणि” एवं ”महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला‘ सम्मान”, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ‘‘भारती रत्न‘‘, अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति मथुरा द्वारा ‘‘कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान‘‘, ‘‘महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान‘‘, मेधाश्रम संस्था, कानपुर द्वारा ‘‘सरस्वती पुत्र‘‘, सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु 50 से ज्यादा सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त।

संपर्क: कृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101
ई-मेलः kkyadav.y@rediffmail.com


गुरुवार, 28 जुलाई 2011

प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटते मुक्तक

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटते नीलम पुरी जी के कुछ मुक्तक. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

१)आँखों के अश्क बह नहीं पाए,
खामोश रहे किसी से कुछ कह नहीं पाए,
किस से कहते दास्ताँ अपने दिल की,
जो था अपना उसे अपना कह नहीं पाए.
***********************
२).जब भी रातों मे तेरी याद आती है ,
वीरान रातों में चाँदनी उतर आती है,
सोचती हूँ तुम मिलोगे खवाबों मे,
मगर ना तुम आते हो ना नींद आती है.
***********************
३)मेरी तनहाइयाँ भी अब गुनगुनाने लगी हैं,
हाथों की चूडियाँ कुछ बताने लगी हैं,
ये खनक है शायद उनके आने की,
जिनकी याद में तू अब मुस्कुराने लागी है.
*************************
४)खामोशियो मे भी गुनगुनाने को जी चाहता है,
तन्हायियो में भी महफिलें सजाने को जी चाहता है,
जाने क्या सर कर गया उसका पल दो पल का साथ,
बेगानों को भी अपना बनाने को जी चाहता है.
******************************
५)पल पल पलकों पर सजाये मैंने,
पल पल अश्क आँखों में छुपाये मैंने,
पल पल इंतज़ार किया और,
पल पल ज़िन्दगी के यूँही बिताये मैंने.
************************
६)अपने अश्कों को छलकाना चाहती हूँ,
तुझे अपने सीने से लगाना चाहती हूँ,
जहाँ मिलती है ज़मी आसमा से ,
वहां अपना आशियाना बनाना चाहती हूँ.
***********************
७) खामोशिओं के दरमियान सरगोशिया मत रखना,
मेरे तकिये तले कोई स्वप्न मत रखना ,
हर रात आधी अधूरी जीती हूँ मैं,
नीलम की दहलीज़ पर उम्मीद के दिए मत रखना.
**************************
८)सूरज की बाहों मे चाँद तड़प गया,
तारों की छाँव मे ,मैं कल रात भटक गया,
पोंछता रहा रात भर नाम पलकों से उसे,
और वो मेरी आँखों मे टूटे ख्वाब सा चटख गया.
************************
९)रात ढलती गयी ,
दिन भी गुज़रता गया,
उस से मिलने की उम्मीद का,
ये पल भी फिसलता गया.
************************
१०) दिल की गहराईओं मैं बस जाते हैं वो,
धड़कन की तरह जिस्म मे समाते हैं वो,
जब जब दिल धडकता है तो अहसास होता है,
आज भी मेरे लिए मुस्कुराते तो हैं वो.

 *********************************************************************************** नाम : नीलम पुरी / व्यवसाय: गृहिणी / शिक्षा-स्नातक/मैं "नीलम पुरी" बहुत ही साधारण से परिवार से जुडी अति-साधारण सी महिला हूँ. अपने पति और दो बच्चों की दुनिया में बेहद खुश हूँ. घर सँभालने के साथ अपने उद्वेगों को शांत करने के लिए कागज पर कलम घसीटती रहती हूँ और कभी सोचा न था कि मेरा लिखा कभी प्रकाशित भी होगा. खैर, कुछ दोस्तों की हौसलाअफजाई के चलते आज यहाँ हूँ. अंतर्जाल पर Ahsaas के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 18 जुलाई 2011

तुम्हारे अंक में


अंशल
तुम्हारे अंक में
अक्षुण्ण रहा
जीवन हमारा!
अनुराग के साथ
हमने थामा था
एक-दूजे का हाथ
अग्नि के संग-संग
फेरों में
वचनों ने हमें बांधा था
वह बंधन
सदा सुदृढ़ रहा
सरिता
सुजल प्रेम का
हर पल बहा
प्रिय!
सौखिक रहा
तेरा सहारा,
अंशल
तुम्हारे अंक में
अक्षुण्ण रहा
जीवन हमारा!
कभी ऊंच-नीच
कभी मनमुटाव
कभी वाक-युद्ध
कभी शांत भाव
कभी रूठना
कभी गुनगुनाना
कभी सोचना
कभी खिलखिलाना
हम-हम रहे
हम युग्म हुये
चलते रहे हैं साथ-साथ
प्रशस्त हुआ
मार्ग सारा,
अंशल,
तुम्हारे अंक में
अक्षुण्ण रहा
जीवन हमारा!

-राजेश कुमार
शिव निवास, पोस्टल पार्क चौराहा से पूरब, चिरैयाटांड,पटना-800001

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कल जीवन से फिर मिला : आशीष

कल वो सामने बैठी थी
कुछ संकोच ओढे हुए
सजीव प्रतिमा, झुकी आंखे
पलकें अंजन रेखा से मिलती थी

मेरे मन के निस्सीम गगन में
निर्जनता घर कर आयी थी
आकुल मन अब विचलित है
मुरली बजने लगी जैसे निर्जन में

खुले चक्षु से यौवनमद का रस बरसे
अपलक मै निहार रहा श्रीमुख को
सद्य स्नाता चंचला जैसे
निकल आयी हो चन्द्र किरण से

उसने जो दृष्टी उठाई तनिक सी
मिले नयन उर्ध्वाधर से
अधखुले अधरों में स्पंदन
छिड़ती मधुप तान खनक सी

ना जाने ले क्या अभिलाष
मेरे जीवन की नवल डाल
बौराए नव तरुण रसाल
नव जीवन की फिर दिखी आस

सुखद भविष्य के सपनो में
निशा की घन पलकों में झांक रहा
बिभावरी बीती, छलक रही उषा
जगी लालसा ह्रदय के हर कोने में !!
******************************************************************************

आशीष राय/ अभियांत्रिकी का स्नातक, भरण के लिए सम्प्रति कानपुर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में चाकरी, साहित्य पढने की रूचि है तो कभी-कभी भावनाये उबाल मारती हैं तो साहित्य सृजन भी हो जाता है /अंतर्जाल पर युग दृष्टि के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 20 जून 2011

प्रेम गीत : रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इंदू‘

जब से मैंने पढ़े प्यार के,
तेरे ढाई आखर।
तब से बसा नयन में मेरे,
चेहरा तेरा सुधाकर।

वह मुस्कान मधुर सी चितवन,
मीठे बोल धरे हैं अधरन।
बनी कमान भौंह कजरारी,
लिये लालिमा कंज कपोलन।।

जब से मिला हृदय को मेरे,
कमल खिला इक सागर।

नीर भरन जब जाए सजनिया,
लचके कमर बजै पैंजनिया।
भीगी लट रिमझिम बरसाती,
डोलत हिय ललचाय नथुनिया।

जब से मिली प्रणय को मेरे
नेह नीर की गागर।

चले मद भरी छैल छबीली,
धानी चूनर नीली-पीली।
सोंधी-सोंधी गंध समेटे,
चोली बांधे गाँठ गसीली।।

जब से हुआ बदन को मेरे,
मोहन मदन उजागर।

एक बूँद अमृत पाने को,
मैं तो कब से था विष पीता।
मन में मिलने की अभिलाषा,
‘इंदु‘ पोष कर पागल जीता।।

जब से लिखा अधर पर मेरे,
तेरा नाम पता घर।।


रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ‘इंदू‘
बड़ागाँव, झांसी (उ0प्र0)-284121

सोमवार, 13 जून 2011

प्यार का आलम : मानव मेहता

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती मानव मेहता की एक ग़ज़ल. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

चाँद के चेहरे से बदली जो हट गयी,

रात सारी फिर आँखों में कट गयी..


छूना चाहा जब तेरी उड़ती हुई खुशबू को,

सांसें मेरी तेरी साँसों से लिपट गयी..


तुमने छुआ तो रक्स कर उठा बदन मेरा,

मायूसी सारी उम्र की इक पल में छट गयी..


बंद होते खुलते हुए तेरे पलकों के दरम्यान,

ए जाने वफ़ा, मेरी कायनात सिमट गयी...

**********************************************************************************
मानव मेहता /स्थान -टोहाना/ शिक्षा -स्नातक (कला) स्नातकोतर (अंग्रेजी) बी.एड./ व्यवसाय -शिक्षक/अंतर्जाल पर सारांश -एक अंत.. के माध्यम से सक्रिय।





सोमवार, 6 जून 2011

मेरी कौन हो तुम : सुमन 'मीत'

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती सुमन 'मीत' की एक कविता। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

पूछती हो मुझसे
मेरी कौन हो तुम !

मैं पथिक तुम राह
मैं तरु तुम छाँव
मैं रेत तुम किनारा
मैं बाती तुम उजियारा

पूछती हो मुझसे मेरी....!

मैं गीत तुम सरगम
मैं प्रीत तुम हमदम
मैं पंछी तुम गगन
मैं सुमन तुम चमन

पूछती हो मुझसे मेरी....!

मैं बादल तुम बारिश
मैं वक्त तुम तारिख
मैं साहिल तुम मौज
मैं यात्रा तुम खोज

पूछती हो मुझसे मेरी....!

मैं मन तुम विचार
मैं शब्द तुम आकार
मैं कृत्य तुम मान
मैं शरीर तुम प्राण

पूछती हो मुझसे
मेरी कौन हो तुम !!
***********************************************************************************

सुमन 'मीत'/मण्डी, हिमाचल प्रदेश/ मेरे बारे में-पूछी है मुझसे मेरी पहचान; भावों से घिरी हूँ इक इंसान; चलोगे कुछ कदम तुम मेरे साथ; वादा है मेरा न छोडूगी हाथ; जुड़ते कुछ शब्द बनते कविता व गीत; इस शब्दपथ पर मैं हूँ तुम्हारी “मीत”! अंतर्जाल पर बावरा मन के माध्यम से सक्रियता.






सोमवार, 30 मई 2011

प्रेम-गीत : अनामिका घटक

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती अनामिका घटक का एक प्रेम-गीत . आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

कतरा-कतरा ज़िंदगी का
पी लेने दो
बूँद बूँद प्यार में
जी लेने दो

हल्का-हल्का नशा है
डूब जाने दो
रफ्ता-रफ्ता “मैं” में
रम जाने दो

जलती हुई आग को
बुझ जाने दो
आंसुओं के सैलाब को
बह जाने दो

टूटे हुए सपने को
सिल लेने दो
रंज-ओ-गम के इस जहां में
बस लेने दो

मकाँ बन न पाया फकीरी
कर लेने दो
इस जहां को ही अपना
कह लेने दो

तजुर्बा-इ-इश्क है खराब
समझ लेने दो
अपनी तो ज़िंदगी बस यूं ही
जी लेने दो

**********************************************************************************
नाम:अनामिका घटक
जन्मतिथि : २७-१२-१९७०
जन्मस्थान :वाराणसी
कर्मस्थान: नॉएडा
व्यवसाय : अर्द्धसरकारी संस्थान में कार्यरत
शौक: साहित्य चर्चा , लेखन और शास्त्रीय संगीत में गहन रूचि.

सोमवार, 23 मई 2011

आपके दामन से : यशोधरा यादव ‘यशो‘

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटता यशोधरा यादव ‘यशो‘ का एक गीत. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

आपके दामन से मेरा, जन्म का नाता रहा है ,
प्यार की गहराइयों का, राज बतलाता रहा है।

मौन मत बैठो कहो कुछ, आज मौसम है सुहाना,
कलखी धुन ने बजाया, प्यार का मीठा तराना।
एक सम्मोहन धरा की, मूक भाषा बोलती है,
और नभ दे दुंदुभी, नवरागिनी गाता रहा है।
आपके दामन......................।

प्यार का मकरन्द भरकर, बादलों का टोल आया,
आम की अमराइयों में, हरित ने आँचल बिछाया।
सूर्य का लुक-छुप निकलना, मुस्कराना देखकर,
मन मयूरी नृत्य कर, कर मान इतराता रहा है।
आपके दमन......................।

भाव का कोई शब्द ही तो, मेरे उर को भेदता है,
गीत की हर पंक्ति बनकर, नव सुगंध बिखेरता है।
बंसुरी की धुन बजाता है, कहीं कान्हा सुरीली,
और चितवन राधिका का, पाँव थिरकाता रहा है।
आपके दामन......................।

दीप तेरा प्यार बनकर, झिलमिलाते द्वार मेरे,
आज कोयल गीत प्रियवर, गा रही उपवन सवेरे।
मन समुंदर की हिलोरे, चूमती बेताब तट की,
रूख हवाओं का विहंस कर, गुनगुनाता जा रहा है।
आपके दामन......................।
*********************************************************************************

यशोधरा यादव ‘यशो‘,
ग्राम-जामपुर पो0- चमरौला, एत्मादपुर (आगरा)-283201

अंतर्जाल पर 'यशोधरा के गीत' के माध्यम से सक्रियता !!

सोमवार, 16 मई 2011

प्राण मेरे तुम न आये : बच्चन लाल बच्चन


मैं बुलाती रह गई, पर प्राण मेरे तुम न आये।
नयन-काजल धुल गए हैं
अश्रु की बरसात से
नींद आती है नहीं-
मुझको कई एक रात से

तिलमिला उर रह गया, पर प्राण मेरे तुम न आये।
तोड़ कर यूँ प्रीत-बंधन
चल पड़े क्यों दूर मुझसे
तुम कदाचित हो उठे थे-
पूर्णतः मजबूर मुझसे

मैं ठगी सी रह गयी, पर प्राण मेरे तुम न आये।
नेत्र पट पर छवि तुम्हारी
नाचती आठों पहर है
याद तेरी पीर बनकर
ढ़ाहती दिल पर कहर है

मैं बिलखती रह गयी, पर प्राण मेरे तुम न आये।
मैं बुलाती रह गयी, पर प्राण मेरे तुम न आये।

बच्चन लाल बच्चन,
12/1, मयूरगंज रोड, कोलकाता-700023


रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव

सोमवार, 9 मई 2011

एक प्रेमलता कुम्भलाई सी : प्रकाश यादव "निर्भीक"

हर शाम का वह पहर
जब हर किसी में होड होती है
जल्दी जाने को अपना घर
शहर की तेज रफ़्तार जिन्दगी में
होती नहीं किसी को तनिक फ़िकर
एक प्रेमलता के दर्द की
जिसका पत्थर ही बना हमसफ़र
खडी है सहारे जिसके आजतक
निहारती रही अपलक उसकी डगर
जो किया था प्रेमालाप कभी
इसी जगह इसी मोड पर
प्रेमलता कुम्भला सी गई अब
प्रियतम के दीदार को एक नजर
मिली न छाया स्नेह का उसे
झुलसती प्रतीक्षा में दिनभर
रजनी आई पास जब
साथ लेकर जख्में जिगर
विह्वल हो गई वह अचानक
थरथरा उठे व्याकुल अधर
पर कह न सकी दर्द दिल का
रोती रही दोनों रातभर
सुबह होते ही ये अश्रुकण
शबनम बन गये बिखर
रात साथ छोड चली गई
संग रह गया फिर वही पत्थर
***********************************************************************************

प्रकाश यादव "निर्भीक"
अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in

मंगलवार, 3 मई 2011

क्यूं छुपाऊं तुमसे - सूरज पी. सिंह

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती सूरज पी. सिंह की कविता। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

तुम्हीं उतरते हो
घास की पत्तियों में बनकर मिठास
जल की शीतलता तुमसे ही है
नदियों की गति तुम ही तो हो
तुम्हीं, तपन बनकर
सूरज में रहते हो
और तुम्हीं
चांदनी की रेशम भी बुनते हो.

माटी में कोई बीज रखूं, तो
अंकुर बन कौन फूटता है?
पेड़ों से गुज़रती हवाओं की सरसराहट
एक रहस्य है
खोलने बैठूं, तो
तुम्हारी ही आहट सुन जाता हूं.

एक गिलहरी
मेरी ओर प्यार से देखती है
एक गोरैया
फुदककर मेरे बाज़ू बैठती है
एक कली
खिलकर, मेरी ओर
थोड़ा रंग, थोड़ी ख़ुशबू उछालती है.
भला क्या करूं मैं, कि इन सबमें
मुझे तेरी शरारत झांकती-सी लगती है?

हर तरफ़, जो तुम ही तुम हो
कहां रखूं
मैं अपना प्यार तुमसे छुपाकर ?

सूरज पी. सिंह
A/301, हंसा अपार्टमेंट, साबेगांव रोड दिवा (पूर्व), थाणे, मुम्बई

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

मैं तुम्हारी संगिनी हूँ : अनामिका घटक

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती अनामिका घटक की कविता. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

मुझे उस पर नहीं जाना
क्योंकि इस पार
मैं तुम्हारी संगिनी हूँ
उस पार निस्संग जीवन है.

स्वागत के लिए
इस पार मैं सहधर्मिणी
कहलाती हूँ
मातृत्व सुख से परिपूर्ण हूँ
मातापिता हैं देवता स्वरुप पूजने के लिए.

उस पार मै स्वाधीन हूँ
पर स्वाधीनता का
रसास्वादन एकाकी है
गरल सामान.

इस पार रिश्तों की पराधीनता मुझे
सहर्ष स्वीकार है
इस पार प्रिये तुम हो
मैं तुम्हारी संगिनी हूँ !!
************************************************************************************
नाम:अनामिका घटक

जन्मतिथि : २७-१२-१९७०

जन्मस्थान :वाराणसी

कर्मस्थान: नॉएडा

व्यवसाय : अर्द्धसरकारी संस्थान में कार्यरत.

शौक: साहित्य चर्चा , लेखन और शास्त्रीय संगीत में गहन रूचि.

ई-मेल : ghatak.27@gmail.com

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

छुअन : संगीता स्वरुप

स्मृति की मञ्जूषा से
एक और पन्ना
निकल आया है .
लिए हाथ में
पढ़ गयी हूँ विस्मृत
सी हुई मैं .

आँखों की लुनाई
छिपी नहीं थी
तुम्हारा वो एकटक देखना
सिहरा सा देता था मुझे
और मैं अक्सर
नज़रें चुरा लेती थी .

प्रातः बेला में
बगीचे में घूमते हुए
तोड़ ही तो लिया था
एक पीला गुलाब मैंने .
और ज्यों ही
केशों में टांकने के लिए
हाथ पीछे किया
कि थाम लिया था
गुलाब तुमने
और कहा कि
फूल क्या खुद
लगाये जाते हैं वेणी में ?
लाओ मैं लगा दूँ
मेरा हाथ
लरज कर रह गया था.
और तुमने
फूल लगाते लगाते ही
जड़ दिया था
एक चुम्बन
मेरी ग्रीवा पर .
आज भी गर्दन पर
तुम्हारे लबों की
छुअन का एहसास है .
******************************************
नाम- संगीता स्वरुप
जन्म- ७ मई १९५३
जन्म स्थान- रुड़की (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- स्नातकोत्तर (अर्थशास्त्र)
व्यवसाय- गृहणी (पूर्व में केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका रह चुकी हूँ)
शौक- हिंदी साहित्य पढ़ने का, कुछ टूटा फूटा अभिव्यक्त भी कर लेती हूँ । कुछ विशेष नहीं है जो कुछ अपने बारे में बताऊँ... मन के भावों को कैसे सब तक पहुँचाऊँ कुछ लिखूं या फिर कुछ गाऊँ । चिंतन हो जब किसी बात पर और मन में मंथन चलता हो उन भावों को लिख कर मैं शब्दों में तिरोहित कर जाऊं । सोच - विचारों की शक्ति जब कुछ उथल -पुथल सा करती हो उन भावों को गढ़ कर मैं अपनी बात सुना जाऊँ जो दिखता है आस - पास मन उससे उद्वेलित होता है उन भावों को साक्ष्य रूप दे मैं कविता सी कह जाऊं.
निवास स्थान- दिल्ली
ब्लॉग - गीत

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

वफ़ा के गीत : यशवंत माथुर

तेरी आँखों के ये आँसूं,मेरे दिल को भिगोते हैं,

तुझे याद कर-कर हम भी,रात-रात भर रोते हैं,

बिन तेरे चैन कहाँ,बिन तेरे रैन कहाँ,

जाएँ तो जाएँ कहाँ,हर जगह तेरा निशाँ,

तेरे लब जब थिरकते हैं,बहुत हम भी मचलते हैं,

चाहते हैं कुछ कहना,मगर कहने से डरते हैं॥


कितने हैं शायर यहाँ,कितने हैं गायक यहाँ,

मेरा है वजूद वहां,जाए तू जाए जहाँ,

कैसी ये प्रीत मेरी,कैसी ये रीत तेरी,

अर्ज़ है क़ुबूल कर ले,आज मोहब्बत मेरी,

तेरे अनमोल ये मोती,जाने क्यों क्यूँ यूँ बिखरते हैं,

अधरों से पीले इनको, वफ़ा के गीत कहते हैं॥
*************************************************************************
यशवंत माथुर, लखनऊ से. जीवन के 28 वें वर्ष में एक संघर्षरत युवक. व्यवहार से एक भावुक और सादगी पसंद इंसान.लिखना-पढना,संगीत सुनना,फोटोग्राफी,और घूमना-फिरना शौक हैं. पिताजी श्री विजय माथुर लेखन के क्षेत्र में प्रेरक एवं मार्गदर्शक हैं.अंतर्जाल पर जो मेरा मन कहे के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

प्रेम अक्षुण्ण रहे! : अनुपमा पाठक

दो दिल
एक एहसास से
बंध कर
जी लेते हैं!
मिले
जो भी गम
सहर्ष
पी लेते हैं!
क्यूंकि-
प्रेम
देता है
वो शक्ति
जो-
पर्वत सी
पीर को..
रजकण
बता देती है!
जीवन की
दुर्गम राहों को..
सुगम
बना देती है!

बस यह प्रेम
अक्षुण्ण रहे
प्रार्थना में
कह लेते हैं!
भावनाओं के
गगन पर
बादलों संग
बह लेते हैं!
क्यूंकि-
प्रेम देता है
वो निश्छल ऊँचाई
जो-
विस्तार को
अपने आँचल का..
श्रृंगार
बता देती है!
जिस गुलशन में
ठहर जाये
सुख का संसार
बसा देती है!
***********************************************************************************
अनुपमा पाठक, स्टाकहोम, स्वीडन.
अंतर्जाल पर अनुशील के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 28 मार्च 2011

गजल : उपेन्द्र 'उपेन'

शर्मा गई चांदनी जब रूख से नकाब हट देखा

इस ज़मीन पर भी एक सुंदर सा चाँद खिला देका

फ़ैल गयी हर जगह रोशनी रोशन हो उठी फिजां

बड़े आश्चर्य से सबने हुश्न -ऐ- चिराग जला देखा

छिपता फिर रहा चाँद बादलों में इधर से उधर

इस चाँद के आगे सबने उस चाँद को बुझा- बुझा देखा

छाई रही मस्ती मदहोश हो गए देखने वाले

रूक गयी धड़कने सबने वक्त भी रुका रुका देका

खामोश हो गया चाँद खामोश हो गयें उसके चर्चे

"उपेन्द्र " हर चर्चे में सिर्फ तेरा हुश्न शामिल हुआ देखा.
************************************************************************************
नाम-उपेन्द्र 'उपेन' । जन्म - 22 अक्टूबर सन् 1974 को आजमगढ़ में । प्रारंभिक तथा स्कूली शिक्षा आजमगढ़ में, फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक. पू्र्वांचल विश्वविद्यालय (शिवली नेशनल कालेज,आजमगढ़) से हिन्दी साहित्य में पीजी एवं अन्नामलाई विश्वविद्यालय से विज्ञापन में पीजी डिप्लोमा। कविता-कहानी का लेखन एवं विज्ञापन में फ्रीलांसिग कापीराइटिंग भी । पचास के करीब कहानियां, कवितायें व लघुकथायें विभिन्न पत्र-पत्रिका में प्रकाशित। संप्रति- रक्षा मंत्रालय।
संपर्क : upen1100@yahoo.com
अंतर्जाल पर सृजन_शिखर के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 21 मार्च 2011

दिल क्यूँ चाहता है : अभिजीत शुक्ल

मैं जानता हूँ की ये सफ़र हमारा साथ कहीं छुड़ा देगा,


पर दिल क्यूँ चाहता है की तुम दो कदम साथ चलो?


मैं जानता हूँ सुबह का सूरज मुझे नींद से जगा देगा,


पर दिल क्यूँ चाहता है तुम इन आँखों में रात करो?


मैं जानता हूँ की प्यासा ही रह जाऊंगा मैं शायद,


पर दिल क्यूँ चाहता है तुम मेरी बरसात बनो?


मैं जानता हूँ अंत नहीं कोई इस सिलसिले का,


पर दिल क्यूँ चाहता है तुम इसकी शुरुआत करो !!
*************************************************************************************
नाम- अभिजीत शुक्ल
शिक्षा- B.Tech. (IT-BHU), PGDBM (XLRI)
वर्तमान शहर- जमशेदपुर
अंतर्जाल पर Reflections के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 14 मार्च 2011

तेरा इठलाना : मुकेश कुमार सिन्हा

ऐ नादान हसीना
क्यूं तेरा इठलाना
तेरा इतराना
ऐसे लगता है जैसे
बलखाती नदी की
हिलोंरे मरती लहरों
का ऊपर उठाना
और फिर नीचे गिरना


क्यूं तुम
फूलों से रंग चुरा कर
भागती हो शरमा कर
बलखा कर


क्यूँ तेरा हुश्न
होश उड़ाए
फिर नजरो से
दिल में छा जाये


क्यूं तेरे आने
की एक आहट
भर दे ख्यालो में
सतरंगी रंगत


क्यूं इसके
महके महके आलम से
इतने दीवाने
हो जाते हैं हम


क्यूं जगे अरमां
जो कहे फलक तक साथ चल
ऐ मेरे दिलनशी
हमसफ़र


पर क्यूं
दिलरुबा जैसे ही नजरों
से ओझल हुई
लगता है
चांदनी
बिखर गयी.....


फिर भी क्यूं
उसके जाने पर भी
खयालो में उसका अहसास
और उसकी तपिश
देती है एक शुकून....
एक अलग सी खुशबू
*************************************************************************
मुकेश कुमार सिन्हा झारखंड के धार्मिक राजधानी यानि देवघर (बैद्यनाथधाम) का रहने वाला हूँ! वैसे तो देवघर का नाम बहुतो ने सुना भी न होगा,पर यह शहर मेरे दिल मैं एक अजब से कसक पैदा करता है, ग्यारह ज्योतिर्लिंग और १०८ शक्ति पीठ में से एक है, पर मेरे लिए मेरा शहर मुझे अपने जवानी की याद दिलाता है, मुझे अपने कॉलेज की याद दिलाता है और कभी कभी मंदिर परिसर तथा शिव गंगा का तट याद दिलाता है,तो कभी दोस्तों के संग की गयी मस्तियाँ याद दिलाता है..काश वो शुकून इस मेट्रो यानि आदमियों के जंगल यानि दिल्ली मैं भी मिल पाता. पर सब कुछ सोचने से नहीं मिलता और जो मिला है उससे मैं खुश हूँ.क्योंकि इस बड़े से शहर मैं मेरी दुनिया अब सिमट कर मेरी पत्नी और अपने दोनों शैतानों (यशु-रिशु)के इर्द-गिर्द रह गयी है और अपने इस दुनिया में ही अब मस्त हूँ, खुश हूँ.अंतर्जाल पर जिंदगी की राहें के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 7 मार्च 2011

तेरा अहसास : सुमन 'मीत'

तेरा अहसास..‘मन’ मेरे

मेरे वजूद को

सम्पूर्ण बना देता है

और मैं

उस अहसास के

दायरे में सिमटी

बेतस लता सी

लिपट जाती हूँ

तुम्हारे स्वप्निल स्वरूप से

तब

मेरा वजूद

पा लेता है

एक

नया स्वरूप

उस तरंग सा

जो उभर आती है

शांत जल में

सूर्य की पहली किरण से

झिलमिलाती है ज्यूँ

हरी दूब में

ओस की नन्ही बूंद

तेरी वो खुली बाहें

मुझे समा लेती हैं

जब

अपने आगोश में

तो ‘मन’ मेरे

मेरा होना सार्थक

हो जाता है

मेरा अस्तित्व

पूर्णता पा जाता है

और उस

समर्पण से अभिभूत हो

मेरी रूह के

जर्रे जर्रे से

तेरी खुशबू आने लगती है

और

महक जाता है

मेरा रोम रोम......

पुलकित हो उठता है

एक ‘सुमन’ सा

तेरे अहसास का

ये दायरा

पहचान करा देता है

मेरी

मेरे वजूद से

और

मेरे शब्दों को

आकार दे देता है

मेरी कल्पना को

मूरत दे देता है....

मैं

उड़ने लगती हूँ

स्वछ्न्द गगन में

उन्मुक्त

तुम संग

निर्भीक ,निडर

उस पंछी समान

जिसकी उड़ान में

कोई बन्धन नहीं

बस हर तरफ

राहें ही राहें हों.....

‘मन’ मेरे

तेरा ये अहसास

मुझे खुद से मिला देता है

मुझे जीना सिखा देता है

‘मन’ मेरे.....

‘मन’ मेरे
*******************************************************************************

सुमन 'मीत'/मण्डी, हिमाचल प्रदेश/ मेरे बारे में-पूछी है मुझसे मेरी पहचान; भावों से घिरी हूँ इक इंसान; चलोगे कुछ कदम तुम मेरे साथ; वादा है मेरा न छोडूगी हाथ; जुड़ते कुछ शब्द बनते कविता व गीत; इस शब्दपथ पर मैं हूँ तुम्हारी “मीत”!अंतर्जाल पर बावरा मन के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

बाँसुरी प्रीति की - नीरजा द्विवेदी

'सप्तरंगी प्रेम' ब्लॉग पर आज प्रेम की सघन अनुभूतियों को समेटती नीरजा द्विवेदी जी की कविता. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा...

बाँसुरी प्रीति की बजने लगी है विजन
सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.
गुनगुनी धूप है सहला रही तन-बदन,
खिलखिलाती कली उड़ा रही है सुगन्ध,
सनसनाती हुई बह रही शीतल पवन,
अनसुनी प्रिय कथा सुना रही है मगन.

बाँसुरी प्रीति की बजने लगी है विजन
सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.
गुलाल किन्चती निशा, छुप गयी है गगन.
छुई-मुई सी उषा, लजा गयी बन दुल्हन.
प्रकृति ज्यों रति बनी, बढ़ा रही है अगन.
बयार सन्दली बही, जला रही तन-बदन.

बाँसुरी प्रीति की बजने लगी है विजन
सनसनी सी उठी, आओ न मेरे सजन.
धौंकनी श्वांस की बजा रही जल तरंग,
कामदेव तीर पर सजा रहे हैं सुमन,
करती नृत्य राधिका, ताल दे रहे मोहन,
जी की कैसे कहूँ, आओ न मेरे सजन.
**********************************************************************************
नामः नीरजा द्विवेदी/ शिक्षाः एम.ए.(इतिहास).वृत्तिः साहित्यकार एवं गीतकार. समाजोत्थान हेतु चिंतन एवं पारिवारिक समस्याओं के निवारण हेतु सक्रिय पहल कर अनेक परिवारों की समस्याओं का सफल निदान. सामाजिक एवं मानवीय सम्बंधों पर लेखन. ‘ज्ञान प्रसार संस्थान’ की अध्यक्ष एवं उसके तत्वावधान में निर्बल वर्ग के बच्चों हेतु निःशुल्क विद्यालय एवं पुस्तकालय का संचालन एवं शिक्षण कार्य.
प्रकाशन/ प्रसारण - कादम्बिनी, सरिता, मनोरमा, गृहशोभा, पुलिस पत्रिका, सुरभि समग्र आदि अनेकों पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में लेख, कहानियां, संस्मरण आदि प्रकाशित. भारत, ब्रिटेन एवं अमेरिका में कवि गोष्ठियों में काव्य पाठ, बी. बी. सी. एवं आकाशवाणी पर कविता/कहानी का पाठ। ‘
कैसेट जारी- गुनगुना उठे अधर’ नाम से गीतों का टी. सीरीज़ का कैसेट.
कृतियाँ- उपन्यास, कहानी, कविता, संस्मरण एवं शोध विधाओं पर आठ पुस्तकें प्रकाशित- दादी माँ का चेहरा, पटाक्षेप, मानस की धुंध(कहानी संग्रह,कालचक्र से परे (उपन्यास, गाती जीवन वीणा, गुनगुना उठे अधर (कविता संग्रह), निष्ठा के शिखर बिंदु (संस्मरण), अशरीरी संसार (साक्षात्कार आधारित शोध पुस्तक). प्रकाश्य पुस्तकः अमेरिका प्रवास के संस्मरण.
सम्मानः विदुषी रत्न-अखिल भारतीय ब्रज साहित्य संगम, मथुरा, गीत विभा- साहित्यानंद परिषद, खीरी, आथर्स गिल्ड आफ़ इंडिया- 2001, गढ़-गंगा शिखर सम्मान- अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन, भारत भारती- महाकोशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद, जबलपुर, कलाश्री सम्मान, लखनऊ, महीयसी महादेवी वर्मा सम्मान- साहित्य प्रोत्साहन संस्थान लखनऊ, यू. पी. रत्न- आल इंडिया कान्फ़रेंस आफ़ इंटेलेक्चुअल्स, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान- सर्जना पुरस्कार.
अन्य- अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश पुलिस परिवार कल्याण समिति के रूप में उत्तर प्रदेश के पुलिसजन के कल्याणार्थ अतिश्लाघनीय कार्य. भारतीय लेखिका परिषद, लखनऊ एवं लेखिका संघ, दिल्ली की सक्रिय सदस्य.
संपर्क- 1/137, विवेकखंड, गोमतीनगर, लखनऊ. दूरभाषः 2304276 , neerjadewedy@yahoo.com

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

कैसे मीत बनूँ मैं तेरा : कृष्णमणि चतुर्वेदी ‘मैत्रेय‘


कैसे मीत बनूँ मैं तेरा।
काँटों भरा सफर है मेरा।।

कौन सारथी बने हमारा।
विरह सिन्धु में कौन सहारा ?
कैसे लड़ूँ वाहव्य वैरी से,
मैं अपनों से हारा।
क्या आयेगा पुनः सवेरा।।

कितना गम है किसे सुनाऊँ?
अपना सीना चीर दिखाऊँ।
कोई मुझे नहीं पढ़ पाया,
विवश भाव से होंठ चबाऊँ।
ऊपर से घनघोर अंधेरा।।

कैसे मीत बनूँ मैं तेरा।
काँटों भरा सफर है मेरा।।


कृष्णमणि चतुर्वेदी ‘मैत्रेय‘
ग्राम-सहिनवा पो0 गौसैसिंहपुर, सुल्तानपुर (उ0प्र0)

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

प्रेम, वसंत और वेलेण्टाइन

प्यार क्या है ? यह एक बड़ा अजीब सा प्रश्न है। पिछले दिनों इमरोज जी का एक इण्टरव्यू पढ़ रही थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब वे अमृता प्रीतम के लिए कुछ करते थे तो किसी चीज़ की आशा नहीं रखते थे। ज़ाहिर है प्यार का यही रूप भी है, जिसमें व्यक्ति चीज़े आत्मिक ख़ुशी के लिए करता है न कि किसी अपेक्षा के लिए। पर क्या वाकई यह प्यार अभी ज़िंदा है? हम वाकई प्यार में कोई अपेक्षा नहीं रखते। यदि रखते हैं तो हम सिर्फ़ रिश्ते निभाते हैं, प्यार नहीं? क्या हम अपने पति, बच्चों, माँ-पिता, भाई-बहन, से कोई अपेक्षा नहीं रखते। सवाल बड़ा जटिल है पर प्यार का पैमाना क्या है? यदि किसी दिन पत्नी या प्रेमिका ने बड़े मन से खाना बनाया और पतिदेव या प्रेमी ने तारीफ़ के दो शब्द तक नहीं कहे, तो पत्नी का असहज हो जाना स्वाभाविक है। अर्थात् पत्नी/प्रेमिका अपेक्षा रखती है कि उसके अच्छे कार्यों की सराहना की जाय। यही बात पति या प्रेमी पर भी लागू होती है। वह चाहे मैनर हो या औपचारिकता, मुख से अनायास ही निकल पड़ता है- ’धन्यवाद या इसकी क्या ज़रूरत थी।’ यहाँ तक कि आपसी रिश्तों में भी ये चीज़ें जीवन का अनिवार्य अंग बन गई हैं। जीवन की इस भागदौड़ में ये छोटे-छोटे शब्द एक आश्वस्ति सी देते हैं। पर सवाल अभी भी वहीं है कि क्या प्यार में अपेक्षायें नहीं होती हैं? सिर्फ़ दूसरे की ख़ुशी अर्थात् स्व का भाव मिटाकर चाहने की प्रवृत्ति ही प्यार कही जायेगी। यहाँ पर मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान के शब्द याद आते हैं- ‘‘जब पहली बार प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आँखें खोली थीं और अपनी जोशीली अँगुलियों से मेरी रूह को छुआ था, तब दिन सपनों की तरह और रातें विवाह के उत्सव की तरह बीतीं।”

भारतीय संस्कृति में तो इस प्यार के लिए एक पूरा मौसम ही है- वसंत। वसंत तो प्रकृति का यौवन है, उल्लास की ऋतु है। इसके आते ही फ़िज़ा में रूमानियत छाने लगती है। निराला जी कहते हैं-

सखि वसंत आया
भरा हर्ष वन के मन
नवोत्कर्ष छाया।

वसंत के सौंदर्य में जो उल्लास मिलता है, फिर हर कोई चाहता है कि अपने प्यार के इज़हार के लिए उसे अगले वसंत का इंतज़ार न करना पड़े। भारतीय संस्कृति में ऋतुराज वसंत की अपनी महिमा है। प्यार के बहाने वसंत की महिमा साहित्य और लोक संस्कृति में भी छाई है। तभी तो ‘अज्ञेय‘ ऋतुराज का स्वागत करते नज़र आते हैं-

अरे ऋतुराज आ गया।
पूछते हैं मेघ, क्या वसंत आ गया?
हंस रहा समीर, वह छली भुला गया।
कितु मस्त कोंपलें सलज्ज सोचती-
हमें कौन स्नेह स्पर्श कर जगा गया?
वही ऋतुराज आ गया।

प्रेम आरम्भ से ही आकर्षण का केंद्र बिंदु रहा है। कबीर ने तो यहाँ तक कह दिया कि-’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’ प्रेम को लेकर न जाने कितना कुछ कहा गया, रचा गया। यहाँ तक कि वैदिक ऋचायें भी इससे अछूती नहीं रहीं। वहाँ भी प्रेम की महिमा गाई गई है। अथर्ववेद के एक प्रेम गीत ‘प्रिया आ’ के हिन्दी में रूपांतरित सुमधुर बोल अनायास ही दिलोदिमाग़ को झंकृत करने लगते हैं-

मत दूर जा/लिपट मेरी देह से/
लता लतरती ज्यों पेड़ से/मेरे तन के तने पर /
तू आ टिक जा/अंक लगा मुझे/
कभी न दूर जा/पंछी के पंख कतर/
ज़मीं पर उतार लाते ज्यों/छेदन करता मैं तेरे दिल का/
प्रिया आ, मत दूर जा।/धरती और अंबर को /
सूरज ढक लेता ज्यों/तुझे अपनी बीज भूमि बना/
आच्छादित कर लूंगा तुरंत/प्रिया आ, मन में छा/
कभी न दूर जा/आ प्रिया!

प्रेम एक बेहद मासूम अभिव्यक्ति है। अर्थववेद में समाहित ये प्रेम गीत भला किसे न बांध पायेंगे। जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं, वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है? प्रेम सिर्फ़ दैहिक नहीं होता, तात्कालिक नहीं होता, उसमें एक समर्पण होता है। अथर्ववेद के ही एक अन्य गीत ‘तेरा अभिषेक करूँ मैं‘ में अतर्निहित भावाभिव्यक्तियों को देखें-

पृथ्वी के पयस से/अभिषेक करूँ/
औषध के रस से/करूँ अभिषेक/
धन-संतति से/सुख-सौभाग्य सभी/तुझ पर वार करूँ मैं।/
यह मैं हूँ/वह तुम/मैं साम/तुम ऋचा/मैं आकाश/तुम धरा/
हम दोनों मिल/सुख सौभाग्य से/संतति संग/जीवन बिताएँ।

वेदों की ऋचाओं से लेकर कबीर-बानी के तत्व को सहेजता यह प्रेम सिर्फ लौकिक नहीं अलौकिक और अप्रतिम भी है। इसकी मादकता में भी आत्म और परमात्म का ज्ञान है। तभी तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- “वसंत का मादक काल उस रहस्यमय दिन की स्मृति लेकर आता है, जब महाकाल के अदृश्य इंगित पर सूर्य और धरती-एक ही महापिंड के दो रूप-उसी प्रकार वियुक्त हुए थे जिस प्रकार किसी दिन शिव और शक्ति अलग हो गए थे। तब से यह लीला चल रही है।“ हमारे यहाँ तो प्रेम अध्यात्म से लेकर पोथियों तक पसरा पड़ा है। उसके लिए किसी साकार और निर्विकार का भेद नहीं बल्कि महसूस करने की जरूरत है। राधा-कृष्ण का प्रेम भी अपनी पराकाष्ठा था तो उसी कृष्ण के प्रेम में मीरा का जोगन हो जाना भी पराकाष्ठा को दर्शाता है। आख़िर इस प्रेम में देह कहाँ है ? खजुराहो और कोणार्क की भित्तिमूर्तियाँ तो देवी-देवताओं को भी अलंकृत करती हैं। फिर कबीर भला क्यों न कहें- ’ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।’

पर दुर्भाग्यवश आज की युवा पीढ़ी प्यार के लिए भी पाश्चात्य संस्कृति की ओर झाँकती है। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, रोमियो-जूलियट के प्यार के किस्से सुनते-सुनते जो पीढ़ियाँ बड़ी हुईं, उनके अंदर प्रेम का अनछुआ अहसास कब घर कर गया पता ही नहीं चला। मन ही मन में किसी को चाहने और यादों में जिन्दगी गुज़ार देने का फ़लसफ़ा देखते ही देखते पुराना हो गया। फ़िल्मों और टी. वी. सीरियलों ने प्रेम को अभिव्यक्त करने के ऐसे-ऐसे तरीक़े बता दिए कि युवा पीढ़ी वाकई ‘मोबाइल’ हो गई, पत्रों की जगह ‘चैट’ ने ले ली और अब प्यार का इजहार ‘ट्वीट’ करके किया जाने लगा। प्रेम का रस उसे वेलेण्टाइन-दिवस में दिखता है, जो कि कुछ दिनों का ख़ुमार मात्र है । ऋतुराज वसंत और इसकी मादकता की महिमा वह तभी जानता है, जब वह ‘वेलेण्टाइन‘ के पंखों पर सवार होकर अपनी ख़ुमारी फैलाने लगे। दरअसल यही दुर्भाग्य है कि हम जब तक किसी चीज़ पर पश्चिमी सभ्यता का ओढ़ावा नहीं ओढ़ा लेते, उसे मानने को तैयार ही नहीं होते। ‘योग’ की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘योगा’ होकर आयातित हुआ। और यही बात इस प्रेम पर भी लागू हो रही है। काश कि वे बसंती बयार में मदमदाते इस प्यार को अंदर से महसूस करते-

शुभ हो वसंत तुम्हें
शुभ्र, परितृप्त, मंद मंद हिलकोरता
ऊपर से बहती है सूखी मंडराती हवा,
भीतर से न्योतता विलास गदराता है
ऊपर से झरते हैं कोटि कोटि सूखे पात
भीतर से नीर कोंपलों को उकसाता है
ऊपर से फटे से हैं सीठे अधजगे होठ
भीतर से रस का कटोरा भरा आता है। (विजयदेव नारायण साही)

फ़िलहाल वेलेण्टाइन-डे का ख़ुमार युवाओं के दिलोदिमाग़ पर चढ़कर बोल रहा है। जो प्रेम कभी भीनी ख़ुशबू बिखेरकर चला जाता था, वह जोड़ों को घर से भगाने लगा। कोई इसी दिन पण्डित से कहकर अपना विवाह-मुहूर्त निकलवाता है तो कोई इसे अपने जीवन का यादगार लम्हा बनाने का दूसरा बहाना ढूँढता है। एक तरफ़ नैतिकता की झंडाबरदार सेनायें वेलेण्टाइन-डे का विरोध करने और इसी बहाने चर्चा में आने का बेसब्री से इंतज़ार करती हैं-‘करेंगे डेटिंग तो करायेंगे वेडिंग।‘ यही नहीं इस सेना के लोग अपने साथ पण्डितों को लेकर भी चलते हैं, जिनके पास ‘मंगलसूत्र‘ और ‘हल्दी‘ होगी। अब वेलेण्टाइन डे के बहाने पण्डित जी की भी बल्ले-बल्ले है तो प्रेम की राह में ‘खाप पंचायतें’ भी अपना हुक्म चलाने लगीं। जब सबकी बल्ले-बल्ले हो तो भला बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कैसे पीछे रह सकती हैं। प्रेम कभी दो दिलों की धड़कन सुनता था, पर बाज़ारवाद की अंधी दौड़ ने इन दिलों में अहसास की बजाय गिफ्ट, ग्रीटिंग कार्ड, चाकलेट, फूलों का गुलदस्ता भर दिया और प्यार मासूमियत की जगह हैसियत मापने वाली वस्तु हो गई। ‘प्रेम‘ रूपी बाज़ार को भुनाने के लिए उन्होंने वेलेण्टाइन-डे को बकायदा कई दिनों तक चलने वाले ‘वेलेण्टाइन-उत्सव’ में तब्दील कर दिया है। यही नहीं, हर दिन को अलग-अलग नाम दिया है और लोगों की जेब के अनुरूप गिफ्ट भी तय कर दिये हैं। यह उत्सव फ्रैगरेंस डे, टैडीबियर डे, रोज स्माइल प्रपोज डे, ज्वैलरी डे, वेदर चॉकलेट डे, मेक ए फ्रेंड डे, स्लैप कार्ड प्रामिस डे, हग चॉकलेट किस डे, किस स्वीट हर्ट हग डे, लविंग हार्टस डे, वैलेण्टाइन डे, फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे के रूप में अनवरत चलता रहता है और हर दिन को कार्पोरेट जगत से लेकर मॉल कल्चर और होटलों की रंगीनी से लेकर सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स और मीडिया की फ्लैश में चकाचौंध कर दिया जाता है और जब तक प्यार का ख़ुमार उतरता है, करोड़ों के वारे-न्यारे हो चुके होते हैं। टेक्नॉलाजी ने जहाँ प्यार की राहें आसान बनाई, वहीं इस प्रेम की आड़ में डेटिंग और लिव-इन-रिलेशनशिप इतने गड्डमगड्ड हो गए कि प्रेम का ’शरीर’ तो बचा पर उसका ’मन’ भटकने लगा। प्रेम के नाम पर बचा रह गया ‘देह विमर्श’ और फिर एक प्रकार का उबाउपन। काश वसंत के मौसम में प्रेम का वह अहसास लौट आता-

वसंत
वही आदर्श मौसम
और मन में कुछ टूटता सा
अनुभव से जानता हूँ
कि यह वसंत है (रघुवीर सहाय)

आकांक्षा यादव
(मेरा यह लेख 9 फरवरी को सृजनगाथा पर प्रकाशित हुआ था, यहाँ साभार प्रस्तुत)

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

ये प्यार है : शिखा वार्ष्णेय

कुछ कोमल से अहसास हैं
कुछ सोये हुए ज़ज्वात हैं
है नहीं ये ज्वाला कोई
सुलगी सुलगी सी आग है
कुछ और नहीं ये प्यार है।
धड़कन बन जो धड़क रही
ज्योति बन जो चमक रही
साँसों में बसी सुगंध सी
महकी महकी सी बयार है
कुछ और नहीं ये प्यार है।
हो कोई रागिनी छिडी जेसे
रिमझिम पड़ती बूंदे वेसे
है झंकृत मन का तार तार
लिए प्रीत का पावन संसार है
कुछ और नहीं ये प्यार है !!
************************************************************************************
शिखा वार्ष्णेय, moscow state university से गोल्ड मैडल के साथ
T V Journalism में मास्टर्स करने के बाद कुछ समय एक टीवी चेनेंल में न्यूज़ प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया ,हिंदी भाषा के साथ ही अंग्रेजी ,और रुसी भाषा पर भी समान अधिकार है परन्तु खास लगाव अपनी मातृभाषा से ही है.वर्तमान में लन्दन में रहकर स्वतंत्र लेखन जारी है.अंतर्जाल पर स्पंदन (SPANDAN)के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 31 जनवरी 2011

कमनीय स्वप्न : आशीष

कौन थी वो प्रेममयी , जो हवा के झोके संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई

खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रीन्खल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी सरोज
क्यों विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध

कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर दृग कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
उसके , ललाट से कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज

नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनकी , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
हम खो गए थे अपने अतीत में , आयी समीप पुनः मंजिल .
************************************************************************************
आशीष / अभियांत्रिकी का स्नातक, भरण के लिए सम्प्रति कानपुर में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में चाकरी ,साहित्य पढने की रूचि है तो कभी-कभी भावनाये उबाल मारती हैं तो साहित्य सृजन भी हो जाता है /अंतर्जाल पर युग दृष्टि के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 24 जनवरी 2011

जज्बातों का एहसास : मानव मेहता

और कुछ देर में चाँद, बादलों से घिर जायेगा..

बुझ जायेगी शमां अँधेरा रोशन हो जायेगा...

तन्हाई के इस सीले से मौसम में,

फिर कोई दर्द के अलाव जलाएगा...


थक-हार कर बैठ के शबिस्तानों में अपने, वह

तन्हाई समेटेगा और गम की चादर बिछायेगा....

है जिस की खवाहिश उसको रात की इस घडी में,

वो शख्स उससे मिलने आखिरी-ए-शब् तक न आ पायेगा...


इस वक़्त वह अकेला है तो उसे अकेला रहने दो,

इस तन्हाई में ही वो खुद को हल्का कर पायेगा...

ये उदासी, ये आंसू ही उसको कुछ सहारा दे पायेंगे,

वरना वो अपने दिल पर इक बोझ ढोता जायेगा....


जब सूख जायेगा पानी उसकी आँखों का बह-बह कर,

वो खुद ही फिर यहाँ से चुप-चाप चला जायेगा....

शायद यही आंसू उसको कुछ होंसला दें पायें फिर से,

और तभी शायद वो अपने खोये लम्हे तलाश कर पायेगा....


सिर्फ ऐसी ही रातें तो अब उसकी ज़िन्दगी का सरमाया है,

यही कसक है जो उससे बादे-मौत भी जुदा न हो पायेगा...

इक आखिरी-पहर तो उसको उसको चैन से जी लेने दो दुनिया वालों,

कल तक तो वो तुम्हारे लिए अपना सब कुछ लुटा जाएगा...


तुम तंगदिल थे और हमेशा तंगदिल ही रहोगे,

जाने कब तुम्हें उसके जज्बातों का एहसास हो पायेगा...

तुम देते रहे हो और देते रहना आगे भी उसको बद्दुआएं,

फिर भी मरता हुआ, हंस कर वो तुम्हें दुआ दे जायेगा....
**********************************************************************************
मानव मेहता /स्थान -टोहाना/ शिक्षा -स्नातक (कला) स्नातकोतर (अंग्रेजी) बी.एड./ व्यवसाय -शिक्षक/अंतर्जाल पर सारांश -एक अंत.. के माध्यम से सक्रिय।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

सिलवटें : वन्दना गुप्ता

बिस्तर की सिलवटें तो मिट जाती हैं
कोई तो बताये
दिल पर पड़ी सिलवटों को
कोई कैसे मिटाए
उम्र बीत गई
रोज सिलवटें मिटाती हूँ
मगर हर रोज
फिर कोई न कोई
दर्द करवट लेता है
फिर कोई ज़ख्म
हरा हो जाता है
और फिर एक नई
सिलवट पड़ जाती है
हर सिलवट के साथ
यादें गहरा जाती हैं
और हर याद के साथ
एक सिलवट पड़ जाती है
फिर दिल पर पड़ी सिलवट
कोई कैसे मिटाए
**********************************************************************************
नाम : वंदना गुप्ता / व्यवसाय: गृहिणी / निवास : नई दिल्ली / मैं एक गृहणी हूँ। मुझे पढ़ने-लिखने का शौक है तथा झूठ से मुझे सख्त नफरत है। मैं जो भी महसूस करती हूँ, निर्भयता से उसे लिखती हूँ। अपनी प्रशंसा करना मुझे आता नही इसलिए मुझे अपने बारे में सभी मित्रों की टिप्पणियों पर कोई एतराज भी नही होता है। मेरा ब्लॉग पढ़कर आप नि:संकोच मेरी त्रुटियों को अवश्य बताएँ। मैं विश्वास दिलाती हूँ कि हरेक ब्लॉगर मित्र के अच्छे स्रजन की अवश्य सराहना करूँगी। ज़ाल-जगतरूपी महासागर की मैं तो मात्र एक अकिंचन बून्द हूँ। अंतर्जाल पर जिंदगी एक खामोश सफ़र के माध्यम से सक्रियता.

सोमवार, 10 जनवरी 2011

सुनो सनम : अनामिका (सुनीता)

सुनो सनम आज
मुझे श्रृंगारित कर दो
अपने आगोश में लेकर
इस तन को
सुशोभित कर दो...
सुनो सनम आज
मुझे श्रृंगारित कर दो ...


अब तक सुनती आई हूँ..
नदी सागर में गिरती है
पर आज तुम सागर बन कर
मुझ नदी में समा जाओ
प्यार की बदली बन कर
मुझ पर बरस जाओ
सुनो सनम आज
अपने हाथों से
मुझे श्रृंगारित कर दो ...


मेरी मांग सिन्दूरी करो ..
मेरी जुल्फों की
चूडा-मणि खोल
मेरी जुल्फों की खुशबू में
अपनी साँसों को घोलो ..
आज मुझ में
खुद को डुबो लो...


मेरे माथे पर
अपने प्यासे लबों से
बिंदिया सजा दो ..
अपने कमल नयन से दर्पण में
मुझे मेरी सूरत दिखा दो ..


अपने प्यार की मुहर
मेरे रुखसारों पर दे दो
मेरे शुष्क होठों पर
अपने लरज़ते होठों की
लाली दे दो ..
सुनो सनम आज
मुझे श्रृंगारित कर दो ...!!


अपनी बाहों का
हार पहना दो ..
अपने स्पर्श से
मेरे बदन की डाली को
खिला दो..
आज आसमान बन
इस धरती को ढक दो


हाँ, सनम
आज मैं कुछ ज्यादा ही
मांगती हूँ तुमसे..
कि मेरे दिल पर
अपना हाथ रखो
मेरी धडकनों को
अपनी धडकनें सुना दो ..


आज कुछ मनुहार करो
अपनी बाहों में समेटो
कंप-कंपाते अरमानों को
अपने प्यार की
तपिश दे दो.
आज मुझे अपने हाथों से
दुल्हन सा सजा दो...!!


अंदर जो सदियों की आग है
अपने प्यार की बरखा से
तन-मन की प्यास बुझा दो
इस प्यासी ज़मीं को
आज पुलकित कर दो
अपने प्यार के सैलाब से
इसे जल-जल कर दो


सुनो सनम
आज कुछ ज्यादा ही
मांगती हूँ तुमसे
कि आज मुझे
श्रृंगारित कर दो ..!!

************************************************************************************
नाम : अनामिका (सुनीता)जन्म : 5 जनवरी, 1969निवास : फरीदाबाद (हरियाणा)शिक्षा : बी।ए , बी.एड.व्यवसाय : नौकरीशौक : कुछः टूटा-फूटा लिख लेना, पुराने गाने सुनना।मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है मन में उठी सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएं चाहे वो दुःख की हों या सुख की....मेरे भीतर चलती हैं॥ ...... महसूस होती हैं ...और मेरी कलम में उतर आती हैं.
ब्लोग्स : अनामिका की सदायें और अभिव्यक्तियाँ

सोमवार, 3 जनवरी 2011

जख्म को मत इतना कुरेदो कोई : प्रकाश यादव "निर्भीक"

जख्म को मत इतना कुरेदो कोई
कि फिर से यह हरा न हो जाए
वरना कांटो भरी राहों में चलना
फिर से हमारा मुश्किल हो जायेगा

एक ही तो गुलाब था जिन्दगी में
जिसे देख मुस्कुराते थे कभी हम
उसका न होने का अहसास न कराओ
वरना फिर संभलना मुश्किल हो जायेगा

अधुरी ख्वाहिश रह गई तो क्या हुआ
पूरी होती ख्वाहिश कहां किसी की यहां
अधुरेपन में ही यहां जीने का मजा है
वरना सफर में हमसफर याद आती कहां

दूर होकर भी हरवक्त आसपास है वो
जीवन के हरपल में एक श्वांस है वो
तमन्ना पूरी हुई नहीं हमारी तो क्या हुआ
जिन्दगी का टुटा हुआ एक ख्वाब है वो

मजबुर थे हालात से हम दोनों इस कदर
चाहकर भी न बन सके हम हमसफर
दूर रहकर ही बांट लेगें सारे गम अपने
"निर्भीक" की तरह कट जायेगा जीवन सफर.

*************************************************************************************

प्रकाश यादव "निर्भीक"
अधिकारी, बैंक ऑफ बड़ौदा, तिलहर शाखा,
जिला शाहजहाँपुर, उ0प्र0 मो. 09935734733
E-mail:nirbhik_prakash@yahoo.co.in